किसी भी समाज मे प्रचलित सभ्यता और संस्कृति का ज्ञान उस समाज की विधि व्यवस्था से होता है। मानव सभ्यता के साथ ही अपराध विधि का सूत्रपात हुआ था। जब से मानव ने प्रजनन की सहज प्रवृत्तियों की परितृप्ति हेतु स्त्रियों और पुरुषों के एक सम्मिलित समुदाय का स्वप्न देखा, और परिवार के रूप में एक संगठित समाज मे सामूहिक रूप से रहना प्रारम्भ किया; वैसे ही आपराधिक विधि की आवश्यकता का अनुभव किया जाने लगा था। प्रारम्भ में मनुष्य अपने प्रति किये गये अपकार का निर्णय स्वयं ही करता था और अपकार करने वाले को स्व-विवेकानुसार दण्ड देता था, जो कि सामान्यतः बहुत ही कठोर और बर्बर हुआ करता था। भूतकाल में समाज मे अपराधियों के सुधार और पुनर्वास जैसी कोई सोंच नही थी, इसलिये उस समय का समाज अपराध की पुनरावृत्ति को रोकने के लिए दण्ड की कठोरता में विश्वास करता था जिससे कि अपराधी स्थायी रूप से अपराध करने लायक न रह जाय। दण्ड की कठोरता का पुरातन सिद्धान्त वर्तमान में दण्ड के सुधारात्मक सिद्धान्त में परिवर्तित हो गया है। दण्ड विधि के उदभव के सम्बंध में प्रसिद्ध विधिवेत्ता प्रो.सोरोकिन ने कह...
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