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भारतीय दण्ड संहिता के निर्माण से पूर्व अपराध विधि का संक्षिप्त इतिहास।

 किसी भी समाज मे प्रचलित सभ्यता और संस्कृति का ज्ञान उस समाज की विधि व्यवस्था से होता है। मानव सभ्यता के साथ ही अपराध विधि का सूत्रपात हुआ था। जब से मानव ने प्रजनन की सहज प्रवृत्तियों की परितृप्ति हेतु स्त्रियों और पुरुषों के एक सम्मिलित समुदाय का स्वप्न देखा, और परिवार के रूप में एक संगठित समाज मे सामूहिक रूप से रहना प्रारम्भ किया; वैसे ही आपराधिक विधि की आवश्यकता का अनुभव किया जाने लगा था। प्रारम्भ में मनुष्य अपने प्रति किये गये अपकार का निर्णय स्वयं ही करता था और अपकार करने वाले को स्व-विवेकानुसार दण्ड देता था, जो कि सामान्यतः बहुत ही कठोर और बर्बर हुआ करता था।    भूतकाल में समाज मे अपराधियों के सुधार और पुनर्वास जैसी कोई सोंच नही थी, इसलिये उस समय का समाज अपराध की पुनरावृत्ति को रोकने के लिए दण्ड की कठोरता में विश्वास करता था जिससे कि अपराधी स्थायी रूप से अपराध करने लायक न रह जाय। दण्ड की कठोरता का पुरातन सिद्धान्त वर्तमान में दण्ड के सुधारात्मक सिद्धान्त में परिवर्तित हो गया है।     दण्ड विधि के उदभव के सम्बंध में प्रसिद्ध विधिवेत्ता प्रो.सोरोकिन ने कह...

भारतीय दण्ड संहिता के आपराधिक प्राविधान किन व्यक्तियों पर लागू नही होते??

सामान्यतः भारत मे रह रहा कोई भी व्यक्ति किसी भी तरह का आपराधिक कृत्य करता है तो उस पर भारतीय दण्ड संहिता में दिये गये आपराधिक धाराओं के तहत मुकदमा चलाया जाता है, परन्तु भारत में कुछ ऐसे विशिष्ट व्यक्ति भी है जिनके विरुद्ध भारतीय दण्ड संहिता के अन्तर्गत कोई भी आपराधिक अभियोग पंजीकृत नही किया जा सकता। इस लेख में संक्षिप्त में उन्ही व्यक्तियों के बारे में जानते है कि वो कौन व्यक्ति है जिनको दण्ड न्यायालयों की अधिकारिता से परे रखा गया है, और दण्ड संहिता के उपबन्ध उन पर लागू नही होते। ऐसे व्यक्तियों के बारे निम्नलिखितरूप से बताया जा रहा है। 1- राष्ट्रपति तथा राज्यपाल- (President and Governor)   भारत का राष्ट्रपति तथा राज्यों के राज्यपालों को भारतीय दण्ड संहिता के प्राविधानों से बाहर रखा गया है। इन लोंगो के विरुद्ध भारतीय दण्ड संहिता के अंतर्गत कोई भी अभियोग पंजीकृत नही किया जा सकता। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 361 में यह कहा गया है कि   "किसी भी न्यायालय में कोई भी आपराधिक प्रक्रिया न तो राष्ट्रपति के विरुद्ध और न ही किसी राज्यपाल के विरुद्ध उनकी पदावधि के दौरान न तो दाखिल की जा...

केंद्र व राज्य सरकार लॉक-डाउन में ज़रूरतमंद अधिवक्ताओं को आर्थिक मदद की घोषणा करें ।

अधिवक्ता न्यायप्रशासन का एक अभिन्न अंग है, अधिवक्ता समाज सबसे कम संसाधनों में हर मौसम में हर तरह की तकलीफों  को बर्दाश्त करते हुऐ आम लोंगो समाज व व्यवस्था द्वारा सताये गये लोंगो को न्याय दिलाने के साथ साथ अपनी जीविका चलाता है। अधिवक्ता समाज अपने क्लाइन्ट के लिये पूरी व्यवस्था से लड़ने का जज़्बा रखता है।। एक समय हुआ करता था, जब ये पेशा जीविका चलाने से ज़्यादा नाम और शोहरत के लिये होता था बड़े-बड़े घरों व राय बहादुर, खान बहादुर परिवारों के लोग ही ज़्यादातर इस पेशे में हुआ करते थे।। परन्तु आज स्थितियां बदल गयी है आज मध्यम वर्ग के साथ साथ किसान का बेटा, मजदूर का बेटा, आम मेहनतकश का बेटा अर्थात हर आय वर्ग के लोग इस पेशे में आ रहे है, और लोगो को न्याय दिलाने का प्रयास करते हुए अपनी जीविका चला रहे हैं।।   पिछले 50 दिनों से लॉक डाउन के चलते पूरे देश मे जिला न्यायालय भी बन्द है जिससे अधिवक्ताओं की आय का स्रोत भी पूरी तरह बन्द है, ऐसे अधिवक्ता जो अर्थिकरूप से कमजोर परिवारों और पिछड़े वर्ग से है, ऐसे अधिवक्ता जिन्होंने अपनी वकालत कुछ एक सालों पहले ही शुरू की है, ऐसे अधिवक्ता जिनके पास सी...

Mens Rea (दुराशय ) अपराध दण्ड संहिता का एक प्रमुख तत्व है।

न्यायमूर्ति कोक ने अपनी पुस्तक 'थर्ड इंस्टीट्यूट' सन्त अगस्ताइन के धर्मोपदेश का आधार लेते हुये एक सूत्र का प्रयोग किया है। यह सूत्र है -     "ACTUS NON FACIT REUM NISI MENS SIT REA" (ऐक्ट्स नॉन फेसिट रियम निसी मेन्स सिट रिया )  इसका अर्थ है कि दुराशय के बिना केवल कार्य किसी व्यक्ति को अपराधी नही बनाता। आज यह सूत्र अंग्रेजी आपराधिक विधि का अधार-स्तंभ बन गया है। यह सूत्र उतना ही प्राचीन है जितनी अंग्रेजी दाण्डिक विधि ।     उपरोक्त सूत्र का विश्लेषण करने से यह सुनिश्चित होता है कि किसी कृत्य को अपराध मानने के लिये दो आवश्यक तत्वों का होना आवश्यक है-- 1-   शारीरिक या भौतिक कृत्य  (Actus Reus ) 2-    मानसिक तत्व या दुराशय   (Mens Rea  )    उपरोक्त दोनों तत्वों को विस्तार से समझते हैं :- (1) शारीरिक या भौतिक कृत्य (Actus Reus ) शारीरिक या भौतिक कृत्य से तात्पर्य  सकारात्मक तथा नकारात्मक दोनो तरह से कार्यो से है। सकारात्मक कृत्य (Positive action)  से तात्पर्य किसी मनुष्य की सकारात्मक गतिविधि से...

अपराध किये जाने के विभिन्न स्तर? (Different stages in commission of a crime)

किसी भी अपराध को मूर्त स्वरूप देने के लिये या अपराध करने से पूर्व अपराधी विभिन्न स्तरों से होकर गुजरता है। यदि कोई अपराध अचानक या अपरिहार्य दुर्घटना (Inevitable Accident) के रूप में घटित होता है तो उसको अपराध के विभिन्न स्तरों से होकर नही गुजरना पड़ता है, इसलिए अपरिहार्य दुर्घटना को एक सफल बचाव या अपवाद माना जाता है। इस प्रकार साशय या जानबूझकर किये गये गये अपराध को करने के लिये एक अपराधी सामान्यतया निम्न स्तरों से होकर गुजरता है:- 1- आशय (Intention) 2- तैयारी  (Preparation) 3- प्रयास या प्रयत्न (Attempt) 4- अपराध का निष्पादन (Execution)   इस तरह से एक अपराधी उक्त स्तरों से गुजरता हुआ किसी अपराध को अंजाम देता है। अब उक्त सभी स्तरों के बारे में एक एक करके विस्तारपूर्वक जानते हैं। 1-आशय (Intention)    प्रत्येक अपराध के पीछे कोई न कोई आशय अवश्य होता है। बिना कारण के कोई कार्य नही होता। कारण आशय को जन्म देता है। यदि कोई कार्य आशय के अभाव में घटित होता है तो उसे दुर्घटना (Accident) माना जाता है तथा दुर्घटना या दुर्भाग्यवश घटित घटना के फलस्वरूप होने वाल...

दण्ड प्रक्रिया संहिता का इतिहास एवम विकास (History and development of Criminal Procedure Code)

दण्ड प्रक्रिया संहिता का इतिहास लगभग 122 वर्ष पुराना होने आया है। व्यवस्थित रूप से यह संहिता प्रथम बार सन 1898 में 'दण्ड प्रक्रिया संहिता'1898 के रूप में हमारे सामने आई थी। उस समय इसे जम्मू कश्मीर, नागालैंड एवं असम से जनजातीय क्षेत्रो को छोड़कर समस्त भारत पर लागू किया गया था। समय समय पर आवश्कयतानुसार दण्ड प्रक्रिया संहिता में संशोधन होते रहे। सबसे महत्वपूर्ण संशोधन सन 1923 व 1955 में हुये, ये संशोधन दण्ड प्रक्रिया संहिता को अत्यंत विस्तृत एवं प्रक्रिया को सरल बनाने तथा यथासम्भव शीघ्र विचारण की व्यवस्था करने वाले थे।    समय समय पर विभिन्न राज्यो की विधानपालिकाओं द्वारा भी कई स्थानीय संशोधन किये गये, जिनका मुख्य उद्देश्य न्यायपालिका को कार्यपालिका से पृथक करना था, जैसा कि संविधान के अध्याय 4 में 'राज्य के नीति निदेशक सिद्धान्तों' के अंतर्गत उपबन्धित किया गया है। लेकिन इन समस्त संशोधनों के बाद भी 1898 की दण्ड प्रक्रिया संहिता के प्राविधान व्यवहारिक रूप से अपरिवर्तनीय ही रहे। सन 1955 में प्रथम विधि आयोग की स्थापना तक इनमें महत्वपूर्ण परिवर्तन करने के कोई प्रयास नही कि...

साक्ष्य क्या होता है? साक्ष्य कितने प्रकार के होते हैं?? (What is Evidence? types of Evidence?)

साक्ष्य अर्थात एविडेंस (Evidence) लैटिन शब्द एविडेरा (Evidera) से लिया गया है; जिसका अर्थ होता है सत्यता को पता लगाना, निश्चित करना अथवा साबित करना। कुछ विधि शास्त्रियों ने साक्ष्य की निम्नलिखित रूप से परिभाषित किया है:- ब्लैकस्टोन के अनुसार "एविडेंस शब्द उसको घोषित करता है जिससे एक पक्ष या अन्य पक्ष के तथ्यों (Facts)  या विवद्दको की सत्यता प्रदर्शित, स्पष्ट अथवा निश्चित होती हो"।     डॉ. जॉनसन के अनुसार, "एविडेंस शब्द सुव्यक्त होने की उस स्थिति को संज्ञापित करता है जो कि साफ प्रकट अथवा विख्यात हो।"   भारतीय साक्ष्य अधिनियम 1872 की धारा 3 में साक्ष्य को निम्नलिखित प्रकार से परिभाषित किया गया है- 'साक्ष्य' शब्द से ओभिप्रेत है और उसके अंतर्गत आते हैं- 1- वे सभी कथन जिनके जाँच अधीन तथ्यों के विषयों के सम्बंध में न्यायालय अपने सामने साक्षियों द्वारा किये जाने की अनुज्ञा देता है या अपेक्षा करता है, ऐसे कथन मौखिक साक्ष्य कहलाते हैं। 2- न्यायालय के निरीक्षण के लिये पेश किये गये सभी दस्तावेजें ; ऐसे दस्तावेज़ दस्तावेज़ी साक्ष्य कहलाते हैं।   साक्ष्य के ...